योग बंध
योग बंध का अर्थ :
योग क्रियाओं की साधना में बंध का महत्वपूर्ण
स्थान है क्योंकि इससे शरीर के अनैच्छिक मांसपेशियों तथा विभिन्न नाड़ियों को
नियंत्रण करने में सहायता मिलती है| बंध का शाब्दिक अर्थ है बांध लेना या नियंत्रण
में करना| प्राणायामों की
साधना और योगासनों का अभ्यास करने के लिए साँस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को
नियंत्रण में करने के लिए बंध क्रिया महत्वपूर्ण कार्य करती है| इसके अलावा अन्य यौगिक
क्रियाओं के लिए भी बंध सहायक होकर शरीर के अंगों को स्वस्थ और सदृढ़ बनाकर
आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति कराने में मददगार साबित होता है|
बंधो के प्रकार :
मुख्य रूप से बंध तीन प्रकार के होते है जिनके
नाम – जालंधर बंध, उड्डियन और मूलबंध है| अगर तीनो बंध एक साथ लगा लिए जाए तो इसे महाबंध
का नाम दिया जाता है| इन बंधो का वर्णन इस प्रकार है :
1.
जालंधर बंध :
बंध की इस मुद्रा के दौरान श्वास नली का संकुचन
किया जाता है| इस मुद्रा में साधक
किसी भी आसन की मुद्रा में बैठकर हाथों को घुटनों पर रख देते है और श्वास को
खींचकर जीभ को उपरी तलवे से लगाकर, कुम्भक क्रिया करते हुए गर्दन को नीचे की ओर
झुकाकर छाती से लगाकर दबाव डालते है| इस अवस्था में आने के बाद रीढ़ की हड्डी को
बिल्कुल सीधा रखें और श्वास नली को सिकोड़ लें| ध्यान को शुद्धि चक्र पर केन्द्रित रखते हुए
शरीर को तनाव मुक्त कर दें|
पूरक क्रिया के द्वारा साँस खींचकर कुम्भक
क्रिया करके जालन्धर बंध लगाया जाता है क्योंकि इससे मस्तिष्क की नाड़ियों को अतिरिक्त
दबाव से बचाया जा सकता है| जालंधर बंध कुंभक क्रिया को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है| साँस को अन्दर खींचकर
रोकने के बाद जालंधर बंध बनाने से वायु के बाहर आने का रास्ता बंद हो जाता है| जब यह शक्ति योगी के शरीर
में एकत्रित हो जाती है तब उसमे शक्तिशाली और बलवान चीजों से टकराने की क्षमता आ
जाती है| धीरे धीरे जालंधर
बंध को हटाते समय साँस भी धीरे धीरे छोडनी चाहिए|
जालंधर बंध के लाभ :
1. जालंधर
बंध का अभ्यास करने से हमारे शरीर के खोखले अंगो पर दबाव पड़ता है जिसके कारण उनकी
कमी दूर होकर उनकी काम करने की क्षमता बढ़ती हैं|
2. कुंभक के साथ जालंधर बंध से वायु के दबाव के
कारण हमारे फेफड़ो के वायु थैले खुलकर हमारी साँस लेने की क्षमता बढ़ती है और हमे
पूरी मात्रा में ऑक्सीजन मिलती है|
3. जालंधर
बंध के गले के रोग ( थायराइड , टांसिल ) दूर होते हैं|
2.
उड्डियान बंध :
इस बंध के दौरान आंतों का संकुचन किया जाता है| बंध की इस विधि में बैठकर
या खड़े होकर किये जाने वाले आसन की मुद्रा में होकर रेचक क्रिया द्वारा साँस को
बाहर निकालकर कुम्भक क्रिया करें| इसके बाद शरीर के अन्दर की शक्ति लगाकर पेट की मांसपेशियों
को क्षमतानुसार इतना सिकोड़ लें की पेट और पीठ मिल जाने की स्थिति बनाकर जालंधर बंध
लगा दें| अपनी क्षमतानुसार
इस मुद्रा में जितने समय तक रुक सकते है, रुकने का प्रयास करें और बाद में जालंधर
बंध को खोलकर साँस लेकर पेट को ढीला छोड़ दें| इस अवस्था में ध्यान मणिपूरक चक्र या विशुद्धि
चक्र पर केन्द्रित करें|
उड्डियान बंध के लाभ:
1.
उड्डियान बंध से आंतो की क्षमता बढ़ती हैं| जिससे कारण हमारी
पाचन क्रिया में सुधार होकर गैस , अपच और पेट से संबधित रोग दूर होते हैं|
2.
उड्डियान बंध के अभ्यास करने से हमारे गुर्दे और लीवर की
क्रियाशीलता बढ़ती हैं|
मूलबंध :
मुलबंध की अवस्था के दौरान गुदा स्थान का संकुचन
किया जाता है| इसके लिए कोई भी
ध्यानासन की मुद्रा बना ले साँस को पूरक या रेचक क्रिया करके या फिर बाह्य कुम्भक
क्रिया करके जालंधर बंध लगा दें| कंधो को ऊपर की ओर तानते हुए हाथों से घुटनों पर जोर से
दबाव डालकर ज़मीन से लगा दें| इसके बाद गुदा स्थान को सिकोड़ कर ध्यान को मूलाधार चक्र पर
लगा दें| इस दौरान संकुचन
मुद्रा में 2 – 3 मिनट रहने की कोशिश करें|
मूलबंध
के लाभ:
1.
मूलबंध के अभ्यास करने से हमारे गुदा से संबंधी सभी रोग दूर
हो जाते हैं|
2.
मूलबंध का अभ्यास मूत्र और यौन संबंधी रोगों में बहुत
लाभदायक है
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